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सांख्य द्वैतवादी है, प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्वों को मानता है। ये दोनो तत्व यद्यपि एक दूसरे के स्वभावतः प्रतिकूल हैं किन्तु इनके संयोग से ही सृष्टि होती है। प्रकृति-पुरुष का संयोग अनादि अविद्या के कारण होता है जैसा कि 'योग सूत्र में कहा गया है "द्रण्टुदृश्ययोः संयोगो हेय हेतुः । अर्थात द्रष्टा-दृश्य का संयोग हेय का हेतु है। पुरूष चिन्मात्र है। वह अपरिणामी, नित्य और सर्वव्यापी है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है और पुरूष निस्त्रैगुण्य है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति-पुरूष का (सम्बन्ध) संयोग भी अंधे और लंगड़े के समान सप्रयोजन होता है। इसका मुख्य रूप से दो प्रयोजन होता है भोग और मोक्ष प्रकृति का मुख्य प्रयोजन भोग है तथा पुरूष का प्रयोजन मोक्ष है। अर्थात् प्रकृति भोग के लिये पुरूष की अपेक्षा रखती है और पुरूष मोक्ष के लिये प्रकृति की अपेक्षा रखता है। ईश्वर कृष्ण ने इसको इस प्रकार व्यक्त किया हैपुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य ।पङग्वन्धवदुभयोरपि संयोगः तत्कृतः सर्गः । (सांख्य कारिका १२)
अर्थात् प्रकृति भोग्या है, त्रिगुणात्मिका है, अचेतन है आदि इसलिये कोईऐसा तत्व होना चाहिये जो भोक्ताहो, निस्त्रैगुण्य और चेतन हो। यह पुरुष ही सिद्ध होता है। प्रकृति और पुरुष का संयोग सम्बन्ध किसी देश-काल में नहीं होता है यह केवल विचार जगत में सन्निधि मात्र होता है। और यह संयोग दोनों की आकांक्षा पर निर्भर करता है। यह संयोग सष्टिकाल (सर्ग) में होता है, प्रलयकाल में दोनों का वियोग होता है। प्रकृति पुरुष संयोग अयस्ककान्त मणिवत होता है। सृष्टिक्रम
सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी और सत्कार्यवादी दर्शन है। प्रकृति और पुरुष-जीव के अनादि संयोग से ही लगत् की रचना मानी गयी है। सांख्य कारिका में ईश्वर कृष्ण ने जगत की रचना में प्रकृति की स्वतंत्र प्रवृत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है- "वत्स
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