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मनस् पञ्चज्ञानेन्द्रियां पंञ्चकर्मेन्द्रियां
पञ्चमहाभूत
गुणों में जब क्षोभ उत्पन्न होता है तब उसकी साम्यावस्था भंग हो जाती है और एक गुण दूसरे गुण पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते हैं और जो गुण शक्तिशाली होता है उसी के अनुरूप वस्तु का निर्धारण होता है। इस प्रकार पच्चीस तत्व सांख्य मानता है। सांख्यकारिकाकार ने निम्न कारिका से स्पष्ट किया है
पंञ्चतन्मात्रा
मूलप्रकृतिर विकृतिर्महदाद्या प्रकृति विकृतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरूषः ।।
इस प्रकार प्रथम महत् तत्व से प्रारम्भ होकर अन्तिम पञ्चमहाभूतों तक का यह सारा प्रकृतिकृत सृष्टिक्रम प्रत्येक पुरूष को मुक्त कराने के लिये प्रवृत्त होता है । ‘प्रतिपुरूषविमोक्षार्थ स्वार्थ इव परार्थआरम्भः । इतः प्रकृति का स्रार्ष्ट व्यापार पुरुष के भोग और मोक्ष के सम्पादन के लिये होता है।
बन्धन और मोक्ष या अपवर्ग
जब पुरुष का प्रकृति से संयोग होता है तब पुरूष का प्रतिबिम्ब चितिच्छायापपत्ति के माध्यम से प्रकृति (बुद्धि) पर पड़ता है और बुद्धि चेतनवती सी होकर विषयाकारकारित हो जाती है।' और प्रतिबिम्बित पुरूष अस्मिता पुरूष है और प्रकृति के सारे कार्य सम्पादन को अपना समझने लगता है यही पुरूष का बन्धन है। शुद्ध पुरूष या 'ज्ञ' पुरूष का बन्धन नहीं होता है बल्कि 'अस्मिता पुरूष' का होता है। प्रकृति अपने सात रूपों के द्वारा पुरूष को बांधती है और एक रूप ज्ञान मात्र से मुक्त करती है
“रूपैः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृतिः ।
'सा० का० में- तस्माद् तत्सयोगादचेतनं चेतनावदिव लिंगम् । गुणकर्तृत्वेऽपितथाकर्तेवभवत्युदासीन ।।२०।।
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