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से अधिक किसी को अभिलाशा नही होती थी । शृगार और विलास से उन को लगाव नही था । धन जोडना वे जानते ही नही थे । इसीलिए किसी को परिग्रह का विचार ही नही आता था । जब परिग्रह का विचार नही था, तो ईर्षा उत्पन्न होने का भी कोई अवसर नही आता था । परन्तु जब मनुष्य लोभी बन गया तो उस मे परिग्रह की भावना ने जन्म लिया । परिग्रह की इस दुर्भावना ने सग्रहवृत्ति के बीज को प्रकुरित किया । परिणाम यह हुआ कि मनुष्य सोचने लगा कि कुछ न कुछ सामग्री पास मे सचित करनी ही चाहिए । इस से भविष्य मे सुविधा रहेगी । जब कोई भावना एक मनुष्य के हृदय मे उत्पन्न होती है, और वह दिनोदिन बढती चली | जाती है तो उस का प्रभाव दूसरे मनुष्यो पर भी पडता है । इस नियम के अनुसार और समय के प्रभाव से अन्य व्यक्तियो के हृदयो मे भी सग्रहवृत्ति उद्बुद्ध होने लगती है । वह उद्बुद्ध होकर रह जाती हो, ऐसी बात नही है, बल्कि दिनोदिन उसका विस्तार होने लगता है । और ज्यो-ज्यो वह वढती चली जाती है, त्यो त्यो दुखो मे भी वृद्धि होने लगती है । ससार मे जो हत्याकाण्ड और महायुद्ध हो चुके है या हो रहे है, ये सब उसी सग्रहवृत्ति के दुष्परिणाम होते है । इन से पिण्ड छुडाने का एक ही मार्ग है, और वह है -- अपरिग्रहवाद । अपरिग्रहवाद हत्याकाण्डो और महायुद्धो को समाप्त करने के लिए ही अवतरित हुआ है । यह बीमारी के मूल को पकड कर उस को समाप्त करने की बात कहता है । ससार मे जितने भी हत्याकाण्ड और युद्ध होते है, उनके पीछे एक ही भावना काम कर रही है, और वह अमर्यादित संग्रहवृत्ति ही है । अपरिग्रहवाद