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________________ (१९४) इसी सग्रहवृत्ति को मर्यादित करता है । संग्रहवृत्ति को लेकर मनविहग आशाओ के असम आकाश मे जो उडारिया लेना चाहता है, उसे यह नियत्रित करता है, लोभी मन को सन्तोषशील बना देता है । मन के सन्तोषी बन जाने पर अमर्यादित सग्रहवृत्ति समाप्त हो जाती है, और अमर्यादित सगहवृत्ति के समाप्त हो जाने पर उस से होने वाले हत्याकाण्ड, युद्ध आदि सभी अनाचार सदा के लिए मिट जाते है । अपरिग्रहवाद की छाया तले पलने वाले जीवन राम और भरत की तरह साम्राज्य की गेन्द बनाकर उसे दूर फेंक देते है, वे दुर्योधन की तरह महाभारत नही लडते है । यही अपरिग्रहवाद की असाधारण उपयोगिता है। मनुष्य को ध्यानपूर्वक सोचना चाहिए कि इस समय जिस को मैं अपनी आवश्यकता मान रहा हूं, यह वास्तव मे मेरी आवश्यकता है या नहीं ? क्या यह वस्तु मेरे जीवन के लिए आवश्यक है ? क्या इस के विना मेरा जीवन नही चल सकता ? यदि यह वस्तु न मिले तो मेरा कौन सा कार्य रुक जाएगा ? यदि ऐसी कोई वात नही है, उस वस्तु के विना अपना कोई काम नहीं रुकता है, उसके विना भी अपना जीवन आराम के साथ भली भान्ति चल सकता है तो मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि वह वस्तु उसकी आवश्यकता नही है । उस का दिल ही दगावाज़ है, जो उनको अनावश्यक वस्तु भी आवश्यक वतला रहा है। इस प्रकार की विचारणा यदि प्रत्येक मनुप्य की बन जाए और किसी वस्तु की अावश्यकता के समय वह ऐसा विचार कर लिया करे तो उसको महान लाभ हो सकता है। आध्यात्मिक लाभ तो होगा
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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