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द्वारा धान्य के समान खसखस आदि और मेवा, मिठाई, घृत, गुड, शक्कर, नमक तेल आदि सभी वस्तुप्रो का ग्रहण होता है । इनकी जितनी आवश्यकता हो उतना परिमाण करके शेष का परित्याग कर देना चाहिए। इन वस्तुओ को अधिक समय तक रखने से इन मे त्रस जीवो की उत्पत्ति हो जाती है। अत इन के रखने के समय की मर्यादा करना आवश्यक है। धान्य के व्यापारी को भी धान्य के वजन का तथा रखने के समय का परिमाण बाध लेना चाहिए।
७-द्विपद-यथापरिमाण-दो पैर वाले प्राणियो का परिमाण करना । दास,दासी,नौकर, चाकर ग्रादि द्विपद परिग्रह मे सगृहीत हो जाते है। प्रथम तो नौकर रखने का स्वभाव नही बनाना चाहिए। क्योकि अपने हाथ से काम करने मे जो यतना (विवेक) हो सकती है, वह नौकरो द्वारा नहीं कराई जा सकती। यदि नौकरो के विना काम न चले तो स्वधर्मी नौकर को सर्वप्रथम अवसर देना चाहिए, यदि विवर्मी रखना ही पडे तो उसे स्वधर्मी बनाने का यत्न करना चाहिए और उस की मर्यादा अवश्य कर लेनी चाहिए।
८-चतुष्पद-यथापरिमाण-चौपाये पशुओ का इच्छित परिमाण करना । गाय, भैस, घोडा, हाथी आदि पशुओ का भावश्यकता से अधिक सग्रह करना उचित नहीं है। इस से ममत्व बढता है, और उन के निमित्त अनेको सावध कार्य करने पड़ते है। अत इच्छापो को सीमित करने के लिए पशुधन को भी सीमित कर लेना चाहिए । यहा उन पशुयो का परिमाण इष्ट है, जिन को स्वार्थवश पाला जाता है। किन्तु मसहाय और अनाथ पशुओ की नि स्वार्थ सुरक्षा की यहा