________________
(१०७)
के इस स्वरूप मे कोई विश्वास नही रखता है । वह उसे व्यक्ति की दृष्टि से सादि - अनन्त, सिद्धशिला के समीप विराजमान तथा समस्त सिद्ध आत्माओ की अपेक्षा से अनादि अनन्त कहता है । इसी मान्यता को आधार बना कर जैनदर्शन मनुष्य जगत से कहता है कि मनुष्यो । तुम स्वय ईश्वर हो । प्रत्येक आत्मा मे ईश्वरत्व अगड़ाई ले रहा है । तुम स्वय अपने भाग्य के विधाता हो, अपनी सृष्टि का निर्माण स्वय तुम्हारे हाथो मे रहा हुआ है। तुम जो चाहो बन सकते हो, तुम स्वय सिद्ध हो, ईश्वर हो । ईश्वरत्व तुम्हारे कण-कण मे खेल रहा है । किन्तु आज तक तुमने उसे पहचाना नही है। सिंह का बच्चा जैसे भेडो मे मिलकर अपने को भेड मान बैठता है, ठीक तुम्हारी भी वही दशा हो रही है । अल्पज्ञो मे मिलकर तथा मोह - वासना की दलदल मे फस कर तुम अपने को दीन, हीन मान बैठे हो, पर वस्तुस्थिति ऐसी नही है । तुम्हारी आत्मा मे अनन्त शक्तिया नाच रही है, अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख का महादेव तुम्हारे अन्दर ही विराजमान है । भक्ति या पूजा करनी हो तो अपने ही आत्मदेव की करो । इस भक्ति और पूजा का ढंग भी बडा निराला है । राग और द्वेष, मोह और माया, तृष्णा और भय से आत्मा का पिण्ड छुडाना ही वास्तविक पूजा है । जीवनगत काम, क्रोध आदि विकारो को दूर करने तथा वीतरागता को प्राप्त करने से बढ कर अन्य कोई भक्ति नही है । वस्तुत आत्मविकास की सर्वोच्च परिणति ही परमात्मतत्त्व है, और इस तत्त्व के तुम स्वामी
1
अप्पा सो परमप्पा |