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________________ ‘(९६) दशन पौर अनन्त प्रानन्द आदि आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्राप्त कर लेता है तो उस समय वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। ऐसा सर्वन और सर्व-दर्शी प्रात्मा ही जैन दर्शन मे सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, परमात्मा आदि नामो से व्यवहृत किया जाता है। साख्य दर्शन के अनुसार वद्ध की जीव और मुवत की ईश्वर सज्ञा जैसे प्रकृति-जन्य गुणो के सम्बध और वियोग पर निर्भर रहती है, ऐसे ही जैनदर्शन को कर्मो से वद्ध जीव की प्रात्मा, जोव आदि और उन से रहित जीव की मुक्त, सिद्ध, सर्वदु खपहीण अादि सज्ञाए इप्ट - परमात्मपद या ईश्वरपद को प्राप्त करने की पद्धति का जैन दर्शन ने जो निर्देश किया है, यह निर्देश किसी विशेष वर्ण जाति, प्रान्त या राष्ट्र के लिए नही किया गया है । वल्कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी वर्ण से सम्बंध रखता हो, किसी जाति का हो, किसी प्रान्त या राष्ट्र का हो ईश्वर को प्राप्त करने योग्य सामग्री को जीवन मे ले आने पर ईश्वर पद को प्राप्त कर सकता है । ईश्वरत्व किसी व्यक्ति-विशेप को सम्पति नही है। उसे पाने के लिए साधक को साधना को पा डण्डियोपर चलना होता है। ऐसा किए विना मनुष्य को ईश्वरत्व या परमात्मत्व प्राप्त नही हो सकता। भूतकाल में जिस किसी जीव ने ईश्वर पद पाया है तो उसने इसी पद्धति को अपनाया कर पाया है । जैनदर्शन का विश्वास है कि अतीत काल मे अनगणित आत्मायो ने ईश्वर-पद प्राप्त किया है, वर्तमान मे प्राप्त कर रही है और भविप्य मे अनगिणत आत्माए इस परपात्मा पद को प्राप्त
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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