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________________ कितना भी बलिदान दे डाले पर वह कभी ईश्वर नही बन सकता है । ईश्वर, ईश्वर रहता है और भक्त, भक्त । यह सत्य है कि भक्त ऊपर उठता हुआ ईश्वर के निकट तो जा सकता है, किन्तु ईश्वर रूप में परिवर्तित नही हो सकता। कारण इतना ही बतलाया जाता है कि ईश्वर एक है, इसलिए कोई दूसरा आत्मा उसका समकक्ष नही बन सकता, किन्तु जैनदर्शन ऐसा नही मानता है। उसके यहा ईश्वर एक नही है, असख्य हैं। इतने ईश्वर है कि उनकी गणना भी नही की जा सकती। जैनदष्टि से ईश्वर अनन्त है। जैनदर्शन का विश्वास है कि जीव और ईश्वर ये दोनो एक ही आत्मतत्त्व की दो अवस्थाए हैं। कर्मजन्य उपाधि से युक्त चेतन को जीव और "कर्मजन्य उपाधि से सर्वथा विमुक्त आत्मा या जीव को ईश्वर या परमात्मा कहा जाता है । अनादिकालीन कर्मबन्धन से बद्ध होने के कारण जीव अल्पज्ञ वन रहा है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि अष्टविध कर्मो के कारण उसके ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक सभी गुण ढके हुए है । काम, क्रोध, लोह, लोभ आदि जीवन विकारो का आत्यन्तिक क्षय करके अहिसा, सयम और तप की विराट साधना द्वारा पूर्व-सचित कर्मो को सर्वथा विनष्ट करके मनुष्य जब अपने को विल्कुल शुद्ध बना लेता है, अनन्त "कर्म-बद्धो भवेज्जीव , कर्म मुक्तस्त्वीश्वर" इसी सम्बन्ध मे एक हिन्दी कवि कहता है - प्रात्मा परमात्मा मे, कर्म का ही भेद है। काट दे गर कर्म को, फिर भेद है, न खेद है ।।
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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