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प्रकाशमान है । वह न स्त्री-रूप है, न पुरुष-रूप है, न अन्यथारूप है । वह समस्त पदार्थो का सामान्य और विशेष रूप से ज्ञाता है । उसको कोई उपमा नही है। वह अरूपी सत्ता है । उस अनिर्वचनीय को किसी वचन के द्वारा नही कहा जा सकता। वह न शब्द है, न रूप है, न रस है, न गन्ध है और न पेश है ... .।
जैनदर्शन मे मुक्तात्मा के अर्थ मे ईश्वर शब्द का व्यवहार नही किया जाता है, तथा वैदिक-दर्शन द्वारा माने गएं ईश्वर का ईश्वरत्व (जगत्कर्तृत्व आदि) भी जैनदर्शन स्वीकार नही करता है । इसीलिए वैदिक दर्शन ने जैनदर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन घोषित किया है। परन्तु जैनदर्शन के निरीश्वरवाद का यह अर्थ नही समझना चाहिए कि जैनदर्शन ईश्वर को मानता ही नही है। जैनदर्शन ईश्वर की सत्ता को अवश्य स्वीकार करता है । सचाई तो यह है कि ईश्वर का जितना शुद्ध, सात्त्विक और प्रामाणिक रूप जैनदर्शन ने अध्यात्म जगत के सामने प्रस्तुत किया है उतना तो अय किसी दार्गनिक ने आज तक किया ही नही है। किन्तु वैदिकदर्शन ने ईश्वर के सम्बन्ध मे जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है उस से जैनदर्शन मतभेद रखता है । वैदिकदर्जन ईश्वर मे जो जगत्कर्तृत्व आदि गुणो का आरोप करता है, जैनदर्शन उनसे सर्वथा इन्कार करता है । जैनदर्शन का विश्वास है कि परमात्मा सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, अानन्द-स्वरूप है, वीतराग है, सर्वज है, सर्वदर्शी है । परमात्मा का दृश्य या अदृश्य जगत मे प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नही है, वह जगत का निर्माता, 'भाग्य का विधाता या कर्मफल का प्रदाता नही है तथा अवतार