________________
(९१) लेकर ससार मे वह आता भी नही है।
ईश्वर शब्द की ऐतिहासिक अर्थ-विचारणा पर विचार करते हुए मालूम होता है कि वैदिक दर्शन के यौवनकाल मे ईश्वर शब्द एक विशेष अर्थ मे रूढ था। उस समय जगत्कर्तृत्व आदि विविध शक्तियो की धारक महाशक्ति को ईश्वर के नाम से व्यवहृत किया जाता था, किन्तु अन्तिम कुछ शताब्दियो से ईश्वर शब्द सामान्य रूप से परमात्मा का निर्देशक बन गया है। ईश्वर शब्द का उच्चारण करते ही मनुष्य को सामन्यः रूप से परमात्मा का बोध होता है। इसीलिए आत्मवादी सभी दर्शनो ने ईश्वर शब्द को अपना लिया है। जैनदर्शन जो कभी अनीश्रवादी कहा जाता था,
और जिस ने ईश्वर शब्द को कभी अपनाया नही था, आज उसी के अनुयायी अपने को ईश्वरवादी कहने मे ज़रा सकोच नही करते है। कारण स्पष्ट है कि ईश्वर शब्द आज वैदिक परम्परा का पारिभाषिक शब्द नही रहा है, अब तो सामान्य रूप से उस से परमात्मा का, सिद्ध का, बुद्ध का बोध होता है। इसी लिए इस पुस्तक मे भगवान महावीर के पाच सिद्धान्तो मे से एक सिद्धान्त 'ईश्वर-वाद' रखा गया है। ईश्वरवाद मे ईश्वर शब्द सामान्यतया परमात्मा का, सिद्ध प्रभु का ससूचक है। यहा उसे वैदिक दर्शन के पारिभाषिक ईश्वर शब्द के स्थानीय ईश्वर शब्द का रूप नही देना चाहिए। वैदिक दर्शन सम्मत उस ईश्वर शब्द के लिए जैन साहित्य मे कोई स्थान नही है।
ईश्वर के तीन रूपईश्वर के सम्बन्ध मे अनेकविध विचार पाए जाते है।