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श्वर की इच्छा पर निर्भर है । मनुप्य कुछ नहीं कर सकता। उसे तो स्वय को ईश्वर के हाथो मे अर्पण कर देना चाहिए। उम की कृपा ही उसकी विगडी बना सकती है । उरा की भक्ति को जानी चाहिए । पर जीव जीव रहेगा और ईश्वर ईश्वर । भक्ति, धर्म आदि अनुष्ठानो से जीव ईश्वर नही बन सकता। ईश्वर और जीव के बीच मे अन्तर-मूलक जो फौलादी दीवार खडी है, वह कभी समाप्त नहीं की जा सकती । इसके अलावा, समार में जब अधर्म बढ जाता है, पाप सर्वत्र अपना शासन जमा लेता है तो पापियो का नाश करने के लिए, तथा धर्म की सस्थापना करने के लिए ईश्वर किसी ना किसी रूप में अवतार धारण करता है, भगवान से रन्सान बनता है । यह वैदिक दर्शन के ईश्वर के स्वरूप का सक्षिप्त परिचय है।
जैन दर्शन मे ईश्वर शब्दजैन साहित्य का परिशीलन करने से पता चलता है कि उस मे परमात्मा के अर्थ मे ईश्वर शब्द का कही प्रयोग नही मिलता है । जनदर्शन मे परमात्मा के लिए सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, सर्वदुःख-प्रहोण, मुक्तात्मा आदि शब्दों का व्यवहार मिलता है। जनदर्शन की दृष्टि से ये समस्त शब्द पर्यायवाची है । मुक्तात्मा का विवेचन करते हुए भगवान महावीर ने श्री प्राचारागसूत्र मे फरमाया है
मुक्तात्मा जन्म-मरण के मार्ग को सर्वथा पार कर जाता है । मुक्ति मे रमण करता है । उसका स्वरूप प्रतिपादन करने में समस्त शब्द हार मान जाते है। वहा तर्क का प्रवेश नही होता । वुद्धि अवगाहन नहीं करती। वह मुक्तात्मा