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माया और लोभ आदि विकार है, इन्ही विकारो के कारण आत्मा अनादिकाल से कर्मो के प्रहार सहन करता चला आ रहा है । जव इन विकारो का सर्वथा प्रात्यन्तिक क्षय हो जाता है और तपस्या द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का सर्वथा नाग कर दिया जाता है तो श्रात्मा निष्कर्म हो जाती है, कर्मों के बन्धनो को तोड डालती है । समल स्वर्ण जैसे कुठाली मे पड कर शुद्ध हो जाता है, वैसे ही क्षमा, सरलता, निर्लोभता और निरभिमानता आदि साधनो द्वारा आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर के कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो जाती है ।
प्रश्न: - कर्मों से सर्वथा मुक्त हुई आत्मा क्या पुन कर्मबन्धन को प्राप्त नही करती ?
उत्तर - जो आत्मा कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर देती है, उन से नितान्त मुक्त हो जाती है, वह पुन कर्मों के बन्धन को प्राप्त नही करती । कर्मवन्ध काम, क्रोध श्रादि विकारों के कारण हुआ करता है, जब विकार ही समाप्त हो गए तो कर्मवन्ध कैसे हो सकेगा ? वीज के सर्वथा जल जाने पर जैसे अकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही कर्म स्पी वीज के जल जाने पर ससार रूप अकुर पैदा नही होता । कहा भी है
दग्धे वीजे यथाऽत्यन्त, प्रादुर्भवति नांकुर । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाकुर || अर्थात् - वीज के जल जाने के बाद जैसे अंकुर पैदा नही हो सकता, वैसे कर्मरूप वीज जल जाने के अनन्तर भवरूप अकुर पैदा नही होता । निष्कर्म जीव को जन्म-मरण नही करना पड़ता है ।