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[ ] ऐसे अत्यनुत श्री वीर भगवान को बाल्योचित मणिमय भूपणों से विभूपित कर देवगण इष्टसिद्धि के लिये भक्ति ले उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे । “हे वीर ! यदि संसार में आपके रचिर वचन न हो। तो भव्यत्माओं को निश्चय ले तत्ववोध किस तरह हो ? पद्मा (कमल-श्री बान श्री ) प्रातकात में सूर्य के तेल के बिना क्या अपने आपही विकसित हो जाती है ? स्नेह रहित दशा को धारण करने वाले श्राप जगत के अद्वितीय दीपक है कठिनता से रहित है अन्तरात्मा जिसकी ऐसे आप चिंतामणि रत्न हैं !
इस प्रकार जन्म कल्याणक मनाकर इन्द्र ने वालक वीर को उनके माता-पिता को सुपुर्द किया और वे स्वयं देवसमूह नहित अमरलोक को चले गये।
उघर राना सिद्धार्थ नेर एक दिन अपने सत्र वन्धु बांधवों और इष्ट मित्रों को निमंत्रित करके वीर-बालक का नामकरण उत्सव मनाया। वे सब ही मङ्गल उपहार लेकर आये। उनके आदर-सत्कार में खूब आमोद प्रमोद हुआ । नप सिद्धाय ने
१. हरि० मर्ग २
२. श्वेतान्बर जैनों की मान्यता है कि पहले तीर्थंकर महावीर का जीव ऋषभदस ब्राह्मण की पत्नी देवनन्दा के गर्भ में पाया था, परन्तु इन्द्रकी श्राज्ञा से नगमेशदेव ने उसे इत्रियाणी त्रिशला की कोख में पहुंचा दिया था, क्योंकि तीर्थकर हमेशा क्षत्रिय होते हैं। श्वेताम्बरों की इस मान्यता के विषय में श्री चन्द्रराज मंढारी (ज्वेताम्बर जैनी) के निम्न-वाक्य दृष्टव्य है-"इमने मन्देह नहीं कि, उपरोक प्रमाणों में से बहुत में प्रमाए बहुत ही महस्वपूर्ण है। इनमें गो प्रायः यही जाहिर होता है कि गर्नहरण' की घटना कवि की करना ही है ।"इत्यादि नगवान् महावीर पृ० ११ ।
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