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प्राणियों के हृदयों के साथ साथ समस्त दिशाये प्रसन्न हो गई । आकाश ने बिना धुले ही निर्मलता धारण करली । उस समय देवों की की हुई मत्त भ्रमरों से व्याप्त पुष्पों की वर्षा हुई और दुदुभियों ने आकाश में गम्भीर शब्द किया ।" १
भ० महावीर के जन्म समय चौथे काल दुःखमा सुखमा में ७५ वर्ष ३ महीने अवशेष रहे थे । प्रभु का जन्माभिषेकोत्सव स्वर्ग के देवेन्द्रो ने आकर मनाया था । स्वयं नृप सिद्धार्थ ने अपने महल मे दश दिन तक उत्सव मनाये थे । खुब दीपक जलाकर रोशनी की गई थी । दान-पुण्य आदि शुभ कर्म किये गये थे और बन्दीजनों को बन्धनमुक्त किया गया था । चहुँ ओर शान्ति और आनन्द की लहर दौड़ गई थी ।
जैन शास्त्रों मे इन शुभ अवसरों का नामकरण 'गर्भ' और 'जन्म-कल्याणक' रूप मे हुआ है । उनमे लिखा है २ कि सौधर्म इन्द्र ने बालक प्रभु को सुमेरु पर्वत की रत्नमई पाण्डुक शिला पर ले जाकर क्षीरोदधि समुद्र के निर्मल जल से अभिषेक किया था। समस्त देव-देवाङ्गनाओं के साथ मनाया गया वह अभिषेक विशाल था । इन्द्र ने अभिषेक के उपरान्त बालक प्रभू को अनेक प्रकार के दिव्य वस्त्र और अलङ्कार पहनाये - सुगन्धित माला पहनाई, उन्हें नमस्कार किया । नम्रीभूत सुरेन्द्र ने 'वीर' यह नाम रखकर अप्सराओं के साथ समस्त रसों को दर्शाने वाला आनन्द नृत्य किया । देव असुरों ने बालक - प्रभू के दर्शन करके अपने नेत्रयुगल सफल किये । विविध शुभ लक्षणों से लक्षित आखिर उनका शरीर था । उनके सौन्दर्य पर कौन न विमोहित होता ? उनके अलौकिक ज्ञान और अतुल बल के आगे कौन न सिर नमाता ?
१. मच० पृ० २४८
२. मच० पृ० २१३