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( ४६ है। फिर भला चे पाप से क्यों डरते ? और क्यों पाप से कलुषित आत्मा की कालिमा को नष्ट करने के लिए पश्चाताप,
आलोचना और प्रायश्चित की प्रचण्ड अग्नि उद्दीपित करते ? वह तो सानते थे कि केवल यज्ञ के मांस-दुर्गन्धाभिसिक्त धूम से ही आत्मा उज्ज्वल हो जायगी। किन्तु फज इससे नितान्त विपरीत होता था। उस पर यज्ञ हर कोई नहीं कर पाता था। धनवान पुरुष ही यज्ञ करके यश पाता था। बिचार गरीव ईर्ष्याग्नि मे झलसते थे। रार्ज यह कि विचार प्रवाह वैदिक कसैकाड के विरुद्ध बह रहा था-लोग आत्मशान्ति पाने के लिए नये-नये उपाय टटोल रहे थे!
कुछ लोग हठयोग की साधना में आत्मशान्ति के स्वप्न देखने लगे। भ० पार्श्वनाथ के नाना राजा महीपाल इस हठयोग के उपासक थे । उल्टे सिर लटक कर--पंचाग्नि तप करऔर अन्य प्रकार से कायक्लेश करके यह लोग हठयोग साधते थे। उन्हें शुरू से ही यह लालसा होती थी कि उन्हें ऋद्धियांसिद्धियां प्राप्त होंगी-उनका जीवन चसत्कार पूर्ण होगा और उनकी आत्मा शरीर वन्धन से मुक्त हो जायगी। किन्तु लोगों को हठयोग मे भी शान्ति नहीं मिली। अतएव वे लोग असंतुष्ट हुये मनमाने मन्तव्यों को मानकर मनस्तुष्टि करने मे सलग्न थे। ये लोग प्रचलित मत-मतान्तरों के विरुद्ध लोगों के हृदयों मे चिनगारियां लगा रहे थे ।१ नये विचार और नये
१. श्री रमेशचन्द्र दत्त ने भी लिखा है कि ब्राह्मण नाद के सत्याघार ने एक क्रान्ति उपस्थित की थी।
"The oppression of Brahmanism made the people sigh for a revolution and the work of the philosophers opened tho path