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निरपराध पशु जीवो को अभयदान देकर उन्होंने निर्भय बनाया और लोक का महती उपकार किया !
निस्सन्देह तब चैदिक क्रियाकांड के बहु प्रचार ने धर्मतत्व की श्रात्मा को शुष्क वना दिया था। धर्म- हंस उड़ गया था, पाखंड कलेवर को ठठरी रह गई थी। उस भयंकर ठठरी को छाती से चिपटाये रहने का अज्ञान-मोह मानव समाज को बेहद सता रहा था। ढौंग और पाखंड छाया हुआ था । अनात्मवाद और कर्मकाण्ड का सार्वभौमिक राज्य था। मानव वाह्य आडम्बर के जाल में फंसे हुये मछली की तरह तड़फड़ा रहे थे । बचना चाहते थे उसकी वेदना से, परन्तु अज्ञान अधकार में मार्ग नहीं सूझता था । उनकी अन्तरात्मा प्रकाश के लिए चिल्ला रही थी । यज्ञों में होती पशु हिंसा ने अधिकांश मानवों के हृदय निर्दयी और कठोर बना दिये थे । उनके हृदय से जीवन के महत्व और प्रतिष्ठा का भाव उठ-सा गया था । श्रव्यात्मिक जीवन के गौरव को भूल गये थे । जड़ पदार्थों की महिमा उनके दिलों में समा गई थी । अध्यात्म-उत्कर्ष में उनकी रुचि नहीं बी, वाह्य बातों में ही वे जीवन की श्रेष्ठता मानते थे । अर्थ सम्पन्न युवक और युवतिया वासनामय आमोद-प्रमोद ही में जीवन-उद्देश्य की इतिश्री मान बैठे थे । लूट-मार और आपसी लड़ाई-झगड़ े बढ़े हुए थे। ऐसे लोगों को झूठा विश्वास करा दिया गया था कि यज्ञ करने से बुरे कर्मों का फल नष्ट हो जाता मिलते है । परन्तु इस घोर हिंसा का ब्राह्मणधर्म से विदाई से आने का श्रेय जैनधर्म के ही हिस्से में है ।"
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