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को वेद मंत्र सुनने का अधिकार नहीं था - स्त्रियां वेद पाठ नहीं कर सकतीं थीं । वह मात्र भोग-विलास की वस्तु समझ जातीं थीं । आजीविक साधु व्यभिचार करना वरा नहीं समझते थे' और ब्राह्मण ऋषिगण अपनी वासना पूर्ति के लिये कई पत्निया रखते थे२ | ऐसे वासनामय काल और क्षेत्र से भला अहिंसा और शील धर्म की पूछ कहां हो सकती थी ?
पशु यज्ञ की पराकाष्ठा वासना तृप्ति का साधन बना हुआ था । निर्दोष, दीन, असहाय पशुओं के रक्त से यज्ञ की वेदी लाल २ हो रही थी । पशु की बलि देकर यह लोग समझते थे कि देवता प्रसन्न हो गये है और वे यजमान की मनोकामना पूर्ण करेगे; परन्तु ऐसा होता कहीं नहीं था । हा, पुरोहित समुदाय को दान दक्षिणा इसमे खूब मिलती थी । इस भयानक हिंसा प्रवृत्ति ने उस समय सज्जनों के दिलों को दहला दिया था । आखिर भ० महावीर ने उन मूक, निरपराध पशुओं के दुख पाशों को काट कर उनको जीवन दान दिया था । यज्ञों से हिंसा के विदा होने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है ! ३ करोड़ों
१. वारुश्रा, आजीनिक्स, भा० १
२. सुत्तनिपात - ते विष्न सुत्त
३. लोकमान्य स्व० बालगंगाधर तिलक ने यह बात निम्नलिखित शब्दों में स्वीकारी थी:--
"अहिंसा परमो धर्मः - इस उदार सिद्धान्त ने ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मर्णीय छाप मारी है । पूर्वकाल में यज्ञ के लिए श्रसंख्य पशु हिंसा होती थी; इसके प्रमाण मेघदूत काव्य आदि अनेक ग्रन्थों से
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