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आजकल जैसी जटिल और संकीर्ण नहीं थी । मुख्यतः चार जातियॉ थी। उनमे प्रधान पद क्षत्रियों को प्रात था। ब्राह्मणो का आदर उनके जैसा नहीं था । वैश्य अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुये ये। देश की समृद्धिशालीनता अधिकाशत. उनकी ऋणी थी। । शूद्र अनादर के पात्र थे । ब्राह्मणों की हेयदशा का कारण उनका क्रियाकांड और जातिमद था। क्षत्रिय-धर्म मार्ग में उनसे बड़े चढ़े थे। तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म उन्हीं में से हुआ था । उनके उपदेश ने लोगों को सचेत कर दिया था। वह क्रियाकाण्ड को नित्सार जानते और नये २ मत चलाते थे। क्षत्रिय और त्राह्मण गुरुओं में प्रायः संघर्ष होता था।
धार्मिक स्थिति-इस संघर्ष में धर्म की बुरी दशा थी। वार्मिक अराजकता चहुँओर फैली हुई थी। एक नहीं बल्कि अनेक-संभवत तीनसौ त्रेसठ मतमतान्तर प्रचलित थे। लोग हैरान थे-अजान अन्धकार में पड़े हुए ज्ञान ज्योति पाने के लिए लालायित थे। दो विभिन्न विचार धारायें वह रही थीं (१) श्रमण परम्परा और (२) ब्राह्मण परम्परा । श्रमण परम्परा को राज्याश्रय मिला था। अधिकांश क्षत्रिय इन श्रमणों को अपनाते थे। आजीवक, अचेलक (प्राचीन जैन ) वौद्ध आदि संप्रदाय इनमें मुख्य थे । जैन श्रमण परम्परा क्षीणधारा में चली आ रही थी। श्रमणगण अन्तिम तीर्थकर की प्रतीक्षा में थे। इस लिये विशेष प्रख्यात धर्म प्रवर्तक अपने को तीर्थङ्कर घोषित करने का मोह संवरण नहीं कर सके थे। किन्तु काठ की इंडिया एक टुफा ही चढ़ती है। आखिर उनका पतन