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( ४१ ) अवश्यम्भावी था। बौद्धों ने सामान्यतः इन सब का और विशेषतः जैनों का उल्लेख 'तीर्थक' ( तित्थिय ) नाम से किया है। इनमे (१) पूर्ण काश्यप, (२) मस्करि गोशालिपुत्र ( मजलि गोशाल ), (३) संजय वैरस्थिपुत्र, (४) अजित केशकम्बलि, (५) और पकुड़ कात्यायन एवं (६) शाक्यपुत्र गौतमबुद्ध प्रमुख मत प्रवर्तक थे । यद्यपि इनके सिद्धान्त प्रायः लचर थे, परन्तु उस क्रांतिमय काल में जो भी व्यक्ति ब्राझणवाद के विरुद्ध खड़ा होता था, लोग उसी को अपना लेते थे। पूर्ण काश्यप एक दिगम्बर साधु था। दिगम्बर वह इस लिए रहता था कि नग्न भेष में उसकी मान्यताअधिक होगी। उसका मत था कि "मनुष्य जो कार्य स्वयं करता है अथवा दूसरे से करवाता है, वह उसकी आत्मा नहीं करती है और न करवाती है। (एवम् अकार्य अप्पा)"२ वह अक्रियावादी था। सम्भवतः काश्यप ने भ० पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित निश्चय धर्म का अवलम्बन लिया। उसने व्यवहार को उठाकर ताक में रख दिया! निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा न कत्तो है, न भोक्ता है, वह शुद्ध वुद्ध है । परन्तु संसार में वह शरीर बन्धन में है। इस लिए निश्चय एकान्त उपादेय नहीं है।
मडलि गोशाल भी पूणे काश्यप की तरह दिगम्बर भेष में रहता था। श्री देवसेनाचार्य ने लिखा है कि पूर्ण और
१. ईटियन ऐटीकेपी, भा० । पृ० १६२ २. सूत्रकृता ।।१३ व हिग्ली, प० ३१