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सुसंस्कृत ललना की यह दुर्दशा न देख सके। उन्होंने उसकी रक्षा की। अर्थ सम्पन्नता और विलास गलबहियां डालकर चलते हैं । अर्थ सम्पन्न पुरुष विलासी न बने तो देवता है और विलासिता का व्यतिक्रम न करे-संयमसे भोग भोगे तो मनुष्य है। किन्तु जहाँ विलासिता ही जीवन का अन्तिम ध्येय बना हो, वहाँ मानवता नहीं ठहर सकती ! भ० महावीर के जन्म से पहले भारत की यही दशा थी। एक चौद्ध ग्रन्थ बताता है कि राजगह के राज कोषाध्यक्षकी कन्या एक डाकू पर मोहित होगई। स्पष्ट शब्दों में उसने अपनी प्रेमवार्ता माता-पिता से कही। माता-पिता ने लाख सममाया, परन्तु प्रेम तो अंधा होता है। हठात् डाकू के साथ उसका व्याह कर दिया गया। थोड़े ही दिनों में कन्या ने अपनी गलती पहचानी । उसने जाना कि उसका पति रूप का गाहक नहीं है - वह धन का लोभी है। फलतः दाम्पत्य जीवन नष्ट हुआ। दोनों एक दूसरे के प्राणों के ग्राहक बने। स्त्री की मायाचारी सफल हुई । डाकू अकाल काल कवलित हुआ । परन्तु हत्यारी कामुक कन्या को कौन स्थान देता? वह संसार से भयभीत हुई भागी और एक साध्वी बन गई । धर्म-संघ ही उस जैसी पतिता के लिये शरणभूत था । ऐसे उदाहरण और भी मिलते हैं, परन्तु च्यवन किये हुये को च्यवन करना व्यर्थ है। तव तो बनवासीवानप्रस्थी भी पत्नी के बिना योग साधना नहीं कर सकते थे। सचमुच तव शीलधर्म की मनमानी छीछालेदर हो रही थी । विवाह सम्बंधों पर प्रतिबंध आजकल जैसा जटिल नहीं था। जाति व्यवस्था भी