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( ३३ ) आत्मोन्नति के जीवन पथ में उनके जीव ने उन्नति अवनति के भकोरे सहे । आखिर वह सम्यक् पथ के पथिक बने । शारीरिक पूर्णता के साथ वह आध्यात्मिक उन्नति करने मे सफल हुए। पर्वत की शिखिर पर चढ़नेके लिये कदम-ब-कदम ऊपर चलना होता है । परमोत्कृष्ट मोक्षधाम भी उसी क्रम से पहुंचा जा सकता है। आत्म-पराक्रम प्रगट करके जीव शुद्ध वद्ध बनता है। भ० महावीर के जीव ने उसको पानेके लिये एक दर्जन से भी अधिक पूर्वजन्मों मे पराक्रम किया था । सर्वत्र तीर्थङ्कर के पाद-पद्म में उनकी आत्माऐसीज्ञान-सुरभित हुई कि अन्ततः वह भी ठीक वैसी ही चमकी ! महान् पद के लिये महान् उद्योग करना स्वाभाविक है। कहां शिकारी पुरुरुवा भील और कहां तीर्थकर महावीर ? आत्मा की अनन्त अचिन्त्य शक्ति है।