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( ३२ ) करने से अपने आत्मिक गुणों का विकास हो, और वही श्रम अक्षयबल है जिससे आत्म-विभति की उपलब्धि हो। जुद्र स्वार्थ के लिए किया गया श्रम प्रशस्त नहीं है क्योंकि उसमें हिंसा की कालिमा छिपी हुई है। चञ्चला लक्ष्मी के लिए श्रम करना कुछ महत्व नहीं रखता । व्यवहार विनिमय के साधन स्वरूप लक्ष्मी द्वारा अपना भौतिक एवं लौकिक स्वार्थ साधकर व्यक्ति सुखसा समझता है परन्तु उसे सन्तोष नहीं होता । अच्छा भोजन और अच्छा वन पाने के लिए व्यक्ति झगड़ता है और भूल जाता है कि यह पशुवत्ति है। क्या मानव को पशु वनना है ? नहीं, कदापि नहीं । प्रिय मित्र ने श्रमण पद लेकर इस सत्य को स्पष्ट कर दिया। उन्होंने वस्त्र का वन्धन हीन रखा, और भूख को जीतने के लिए वह तपस्या करने लगे। आगे बढ़ते हुये सोलह कारण भावनाओं का मूर्तमान चित्र उन्होंने अपने हृदय में अकित किया। सचमुच धर्ममूर्त प्रियमित्र महाभाग थे-राजचक्रिवतित्व के पद को उन्होंने ठुकराया था। अत: धर्मचक्रवर्ती का महान् पद मिलना उनके लिये अनिवार्य था । सोलह कारण भावनाओं को अपनी जीवनचर्या में मूर्तमान बनाकर उन्होंने तीर्थकरकर्म-प्रकृति का वध किया था। समभावों से शरीर त्याग कर वह सहस्त्रार स्वर्ग में देव हये । साधना की चरम स्थिति में वह पहुँच चुके थे। वहां से च्चत हये, तो नन्दनवर्द्धन नाम के राजा हुये । मुनिव्रत धारे और समाधि से प्राणोत्सर्ग करके वह पुष्पोत्तर विमान में देव हुये । यहां से च्यत होकर वह जीव तीर्थकर महावीर नाम से प्रसिद्ध हुआ।