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( ३१ ) बहे, घमंड मे वह अंधे नहीं हुये। उन्होंने सिद्ध कर दिया 'अधिकार पाय काहि मद नाहिं' की उक्ति अज्ञजनों के लिए है । विचक्षण राजत्व को चार दिन की चांदनी-भर जानते हैं। प्रियमित्र यह मानकर प्रात्मोत्कर्ष के कार्य करने पर तुल पड़े। उन्होने जिनेन्द्र भक्ति से प्रेरित हो 'इन्द्रध्वज-मह' (यज्ञ) नामक विशेष पूजा रची और लोगों को किमिच्छित दान दिया। उनका यश लोक में फैल गया । वह महान् लोकोपकारी जो थे। साधना की पहली सीड़ियों को पूरा कर आये । धन का निस्सार रूप उन्होंने पहचान लिया, वह सम्पत्ति नहीं है, सम्पत्ति तो समुचित 'श्रम' है । श्रम न हो तो सम्पत्ति भी न हो । श्रम से महान् सम्पत्ति मिलती है । श्रमण-साधु श्रम से ही मोक्ष-लक्ष्मी को पाता है। अतः सत-श्रम ही उपादेय है। यह सोचकर प्रियमित्र एक दिन श्री क्षेमकर तीर्थकर के समवशरण में पहुंग । उनसे धर्मोपदेश सुना। उसके अन्तर मे आत्मा का प्रकाश चमक उठ।। चक्रवर्ती का ऐश्वर्य उसके सम्मुख फीका जंचा। वह उसे काटने को दौड़ा। अपने पुत्र को राज्य देकर वह श्रमण (मुनि) हो गये। तीर्थयार के पाद. मूल में धर्म की आराधना करने मे वह तन्मय हो गए। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी गुरू को उन्होंने पाया । केवल ज्ञान के उन्होंने साक्षात् दर्शन किये । आत्मा की अनन्त शक्ति में उनको हद श्रद्वा हुई। आर्य-सत्य को पाने के लिये वह सत्-श्रम करने में लग गये; क्योंकि उनको विश्वास था कि श्रम वही सराहनीय और उपादेय है जिसके