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( ३० ) राज्य लक्ष्मी को भोगते हुये भी वह व्रतों को पालता था । जीत्र के संस्कार जैसे पड़ जाते हैं, वैसा ही जीवन व्यवहार म्वतः बनता ही जाता है। धर्म का बीज अंकुरित होने पर बढ़ता ही है। हरिषेण के भव में भ० महावीर के जीव ने धर्म भाव को उत्तरोचर बढ़ाया । दान देते और पूजा करते हुये वह आनन्द अनुभव करता । सचमुच "मैं धर्म कार्य कर रहा हूँ।" यह भाव ही सुखदायक है, यहां भी और दूसरे भव में भी । किन्तु अन्तर्दृष्टा-जीव इस पुण्य कार्य से ही संतुष्ट नहीं होता। भक्ति को वह अपनी साधना की एक मंजिल मानता है और उसको पाकर आगे बढ़ता है । हरिषेण का जीव तत्वदृष्टि पा गया था। वह आगे बढ़ा, मुनि हुा । तप किया और समाधि से फिर स्वर्ग सुख पा गया । वहां भी वह धर्म की आराधना करता रहा।
धर्म पुरुषार्थ से ऐश्वर्य की प्राप्ति होना अवसम्मा है। उस ऐश्वर्य को पाकर भी जब जीव वासना को जीतता है-इन्द्रियों का दास नहीं होता, तभी वह महान होता है। महावीर प्रम के जीव ने इस परीक्षा में भी अपने को सफल सिद्ध किया । उनको चक्रवर्ती का ऐश्वर्य मिला। भौतिक उन्नति फी चरम सीमा पर वह पहुंच गये। प्रियमित्र चक्रवर्ती ये वह, किन्तु इस भौतिक उत्कर्ष में भी उनका ज्ञाननेत्र प्रकाशमान था । राजत्व और ऐश्वर्य की चरम सीमा पर वह पहुँचे । शरीर बल और लोक प्रमुता की परमोत्कृष्ट स्थिति में थे वह किन्नु प्रियमित्र उससे प्रभावित नहीं हुये, वामना में वह नहीं