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हो गया है। यह पराक्रमी वीर था। चट से सेना लेकर उस विद्रोह को शमन करने के लिये वह कामरूप की सीमा पर चला गया। वीर तो था ही-राजविद्रोही का मानमर्दन करके वह जल्दी ही राजगृह लौट आया। उसने देखा कि उसके उद्यान पर विशाखनंदि ने उसकी अनुमति विना अधिकार कर लिया है। उसकी यह अनधिकार चेपाथी । विश्वनंदि इस अन्याय को सहन न कर सका । उसने विशाखनंदिको समझाया, किन्तु हठीला विशाख नहीं माना । दोनों में युद्ध हुआ-विशाख हार गया और जाकर पिता के पास रोया। इधर विश्वनंदि को भाई की इस कायरता और स्वार्थवद्धि पर करुणा आई । उसने वह उद्यान विशाख को दे दिया और संसार के वैचित्र्य को देखकर वह साधु हो गया। विशाखभूति ने रोका तो उसने कहा, "तात ! मेरा निश्चय हड़ है। मैं नश्वर सम्पत्ति के मोह मे भाई से लड़ा, इसका परिशोध करना है । उद्यान सौन्दर्य क्षणिक है । भाई का सौहार्द्र स्वार्थ से अलिप्त स्थिर नहीं है। आत्मा का सौन्दर्य और सौहार्द्र स्थिर और अपूर्व है । मैं उसके पाने का पराक्रम करूंगा।" विशाखभूति ने भतीजे के त्यागभाव की गहराई को आंक लिया । उसने 'तथाऽस्तु' कहा और स्वयं भी मुनि हो गया । जड़ बुद्धिमे सुख कहां है ? शरीर का बन्धन दुखद ही है। विशाखनंदि राजा हुआ। कायर था, शासन सूत्र संभाल न सका। राजभृष्ट होकर वह एक दिन सथरा के बाजार में एक दुकान पर बैठा हुआ था। साधु विश्वनंदि भिक्षावत्ति के लिए वहांसे निकले । अकस्मात् एक बैल ने उनको धक्का दिया। वह गिर पड़े। यह देखकर