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( २६ ) विशाखनंदि ने उनका उपहान किया । माधु विश्वनदि अपन को संभाल न सके-समताभाव को खो बैठे। उन्होंने निदान स्यिा कि दूसरे जन्म में इसको जरूर मजा चखाऊगा ' वर का न्योटा वीज उन्होंने बोया। सन्मार्ग से फिर वह विचलिन हये। उन्होंने ठीक पराक्रम प्रगट किया था. किन्तु त्याग, अहिंना और सत्य का सुनहरा जीवन उन्होंने वैर-विप की कटु-भावना से दूपित कर लिया । तपस्वी तो थे ही, शरीरान्त पर स्वर्ग मे देवता हुचे ।
स्वर्ग-सुख भोगकर यह जीव पोदनपुर के राजा प्रजापति का त्रिपष्ट नामक पुत्र हुआ। वह पहला नारायण था। नरों में श्रेष्ट और मर्यादा धर्म का वह आदर्श निर्माता था । पराक्रमी भी वह अधिक था। उसी समय अश्वग्रीव नामक राजा भी बडा प्रतापी था। उसका लोहा सब कोई मानता था । त्रिपृष्ट पर भी उसने शासन चलाना चाहा उसे वह सहन नहीं हुआ त्वाधीनवृत्ति जो थी उसकी-फिर था पूर्व संस्कार ! वैर का बदला चुकना ही था। अश्वग्रीव विशाखनदिका जीव था । हठात् दोनों में युद्ध हुआ। युद्ध भी इस लिये कि अश्वनीव चाहता था कि स्वयंप्रभा का व्याह त्रिपृष्ट के साथ न हो, पर स्वयंप्रभा व्याही गई त्रिपृष्ट को । स्त्री मोह मे अश्वग्रीव आग बबूला हो गया और यद्ध में खेत रहा ! त्रिपृष्ट निष्कण्टक हो राज्य करने लगा। तीन खंड पृथ्वी का वह राजा हआ । उसके ऐश्वर्य का ठिकाना न था। भौतिक जीवन में वह आगे बढ़ रहा था। विलासिता ऐश्वर्य की छाया है। त्रिपृष्ट भोगों में अंधा हो गया । अपने कर्तव्य को वह भूल बैठा और नरकगामी हुआ । करनी का फल जीवों को
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