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( २४ ) संस्कार हो गया था-वह फिर सन्यासी बना और उसका सीठा फल उसे स्वर्ग सुख मिला। स्वर्गीय जीवन के भोग भोगकर वह फिर एक बार अग्निमित्र नामक परिव्राजक हुआ
और आशिक साधना ने उसे फिर स्वर्ग-सुख दिये। निस्संदेह छोटा-सा अच्छा बीज भी मीठा-फल देता ही है, किन्तु स्वर्गीय जीवन को अन्तिमध्येय समझना तो अजान है। उसमे मुक्ति नहीं है । स्वर्ग सुख भोग कर वह भारद्वाज नामक त्रिदंडी साधु हुआ। मिथ्या श्रद्धान को वह धो न सका । देवगति के भोगों मे वह आसक्त जो हो गया था । इस इन्द्रियासक्ति ने उसे बहुत-सी कुयोनियों में भटकाया। फिर किसी पूर्व संचित शुभ कर्म के प्रभाव से वह मनुष्य हुआ। वह परिव्राजक स्थावर कहलाया। परिव्राजक जीवन में उसने फिर अजान तप किया, आत्मानुभव से वह दूर रहा । तप का फल ऐश्वर्य भोग है । वह देवपर्याय में उसे मिला।
उस समय राजगृह नगर में विश्वभूति नामक जैनी राजा राज्य करता था। पुरुरवा भील का वह जीव जो भ० महावीर हुआ था, उस जन्म में उनका पुत्र विश्वनदी हुआ । वह वड़ा पराक्रमी था। हरएक का प्यारा था वह । उसका चचेरा भाई विशाखनदी था। वह विशाखभूति का पुत्र था । विश्वभूति ने
राज्यभार विशाखभूति को सौंपकर मुनिव्रत धारण किया था। विश्वनदि यवराज हुआ । उसने एक सुन्दर उद्यान अपने मनोविलास के लिये वनवाया और उसमे आनन्द से रह रहा था। अचानक उसे बात हुआ कि कामरूप का सीमावर्ती राजा विद्रोही