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( २० ) जन्म में वह मानव हुअा और हुवा भीलों का मरटार ! शिकार खेलना उसका टैनिक कर्म था-वह हिमानन्दी था। उसका नाम पुरुरवा था। कालिका उनकी पत्नी थी। एक दिन पतिपत्नी वन-विहार कर रहे थे। पुरुरवा ने पेड़ों के मुरमुट में दो चमकती-सी ऑखें देवीं। तीर निकाल कर उसने धनुप पर चढ़ाया। किन्तु कालिका ने रोक दिया। वह बोली, "वहाँ शिकार नहीं, एफ वन देवता बैंट हैं।" पुरुरवा अचंभे में पड़ावह गया और सचमुच देखा मागरसेन मुनि ध्यान लगाये बैठे हैं। दोनों ने भक्ति से फूल चढ़ाये और बैठ गये। निर्मन्य योगिराट ने उनको ‘धर्म लाभ' पाशीर्वाद दिया। साधु विशेष ज्ञानी थे। उन्होंने जाना भील निकट भव्य है। इसे सभ्य बनाना कठिन नहीं । वह बोले, "भीलराज ! इस मोह में क्यों पडे हो ? तुम चाहो तो लोक को अपना सेवक बना लो !" भील आश्चर्यचकित हुआ। उसने पूछा, “सो कैने ?" साधु ने बताया, "कुछ नहीं, ज़रा-सी बात है। अपने को जान लो। विजय तुम्हारी है । तुम इस शरीर को अपना मानते हो, यह भ्रांति है। यह शरीर तो यहीं रह जाता है-मिट्टी में मिल जाता है। इस शरीर-मन्दिर में जो वोलता हुआ हंस है वह उड़ जाता है। वह हस तुम हो । इसलिए तुम अमर हो । शरीर छूटने पर भी तुम रहोगे। फिर शरीर के मोह में क्यों पड़े हो ?" भीलने सोचा कि 'साधुजी वात तो ठीक कह रहे हैं। मनोविज्ञानी योगिराट ने भी भील का मनोगत भाव जांच लिया। उन्होंने आगे कहा, "भाई, यह वात याद रक्खो कि संसार में मनुष्य