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जन्म पाना दुर्लभ है । उस दुर्लभ रत्न को पाकर तुम देह की दासता मे अंधे बने रहकर उसका मूल्य नहीं आंकते तो यह मूर्खता है ।" भील बोला, “महाराज ! मैं किसी का दास नहीं हॅ—भीलों का सरदार हूँ ।" उसकी यह बात सुनकर साधु हॅस दिये और बोले, "अरे भोले जीव ! तू सरदार कहाँ है ? दो अंगुल की जीभ ने तुझे अपना दास बना रक्खा है । जीभ के स्वाद के लिये तू दूसरे जीवों के प्रारण लेता फिरता है । जीभ के चटखे को तू एक क्षण भी रोक नहीं पाता। उसके हुकुम को तू तत्क्षण मानता है । बता तू दास नहीं है ।" भील चुप था । भीलनी ने साहस-से कहा, "यदि खाये नहीं तो भूख से मर जांय ।" साधु बोले, “भूख से कोई नहीं मरता और न किसी को मरना चाहिये | किन्तु ध्यान यह रक्खो कि भूख की | ज्वाला मिटाने में दूसरे जीवों को कम से कम कष्ट हो । अन्नजल और फल-फूल खाकर भी मानव जीवित रह सकता है । पशु-हत्या मे हिंसा अधिक है-उससे मानव में पशुता और बर्बरता बढ़ती है। मुझे देखो, मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ । दिन में केवल एक वार शुद्ध निरामिष भोजन करता हॅू । स्वयमेव पक कर चुये हुये फलों को खाने में बड़ी निराकुलता और आनन्द है । फिर मैं तो भूख को जीतने के लिये दो-दो महीनों तक भोजन नहीं करता ? उपवास और आत्मध्यान में मग्न रहता हूँ । मुझे कोई विकार नहीं सताता । मैं स्वस्थ हूँ । तुम भी ऐसा ही करो !” भील बड़े असमंजस में पड़ कर बोला, “महाराज ! मैं तो अपने भील समूह का सरदार हूँ | तब लोक का सरदार