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( १७ ) पयोग स्वयं कार्यकारी होता है । जन्म समय से ही तीर्थकर का क्षयोपशम विशेष होने से मति-श्रुत-अवधि की विशिष्टता उनमें होती है। पूर्ण ज्ञानी होकर वे धर्मदेशना देते और धर्मतीर्थ की स्थापना करते है । अतः केवल ज्ञान-अवसर तीर्थकर जीवन में अपूर्व है । तब देवकृत चौदह अतिशय प्रगट हो जाते हैं, जिससे तीर्थकर भगवान का अपूर्व वैभव प्रगट होता है । उनके विहार मे धर्मचक्र आगे आगे चलता है। समवशरण की अपूर्व रचना होती है। किन्तु यह वाद्य अतिशय उनकी अन्तरंग विभूति के आगे पासंग भी नहीं है। विवेकी इन से तीर्थंकर की महानता नहीं मानते । उनकी वाह्य विभूति में मग्न हो जाने को वे आत्मोन्नति में अर्गला मानते हैं । कहा भी है -
"जे जिनदेह प्रमाण ने, समवसरणादि सिद्धि । वर्णन समझे जिन मुं, रोकि रहे निज बुद्धि ॥"
वस्तुतः तीर्थकर का महत्व उनकी आत्मा के पूर्ण विकास में-उसकी परम विशुद्धि मे गर्भित है और वही मानव के लिये उपादेय है। मानव उसी प्रकार अपने को शुद्ध करके महान् बन सकता है। किन्तु इस आत्म शुद्धि और उसके परिणाम रूप मुक्ति-वैभव की प्रतीति आधुनिक जगत को प्रायः नहीं है। आजकल के सभ्यशिष्ट पुरुष जड़वाद में निमग्न होने के कारण आध्यात्मिक बातों की ओर से बेसुध है-उनकी विलक्षणता देखकर वे श्रद्धा को खो बैठते हैं । किन्तु वे भूलते हैं। मानवशरीर में चैतन्य गुणधारी आत्मा के अतिरिक्त पुद्गल की सारी