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(१४) पढावश्यक पालन — नित्य नियम के छै आवश्यक
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कर्मों, सामायिक वन्दना - प्रतिक्रमणादि के करने मे दक्ष होना ।
(१५) मार्ग प्रभावना - 'मोक्ष मार्ग का पर्यटक संसार का प्रत्येक प्राणी बने'-इस पुनीत भावना से धर्म प्रकाश के कार्य करना ।
(१६) वात्सल्य - मोक्षमार्गरत साधर्मी बन्धुओं के प्रति वात्सल्य भाव का बर्ताव करना और जीवमात्र के प्रति
व्यवहार मे विश्व प्रेम का परिचय देना !
उपर्युक्त सोलह कारण भावनाओं का एक तीर्थंकर को निकटता में निरन्तर अभ्यास करने से मुमुक्षु अपने मे वह योग्यता प्राप्त करता है, जिससे वह तीर्थङ्कर होता है । इन भावनाओं को पालन करने का ऐसा प्रभाव होता है कि मुमुक्षु मे आध्यात्मिक प्रकाश बढ़ता जाता है- आत्मा के दर्शन - ज्ञानादि गुण विकसित होते जाते हैं। लोग समझते हैं कि वे चर्मचक्षुओं से देखते हैं, किन्तु ज्ञानी यह नहीं मानता, उसे वह जड़वाद का विकार मानता है । चर्मचक्षु ज्ञानोपयोग के बल पर ही सार्थक है । ज्ञानोपयोग मति श्रुति अवधि - मन पर्यय और केवलज्ञान रूप है । ज्ञानावर्णी कर्म के क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान की तरतमता होती है, परन्तु उसके सर्वथा तय होने पर ज्ञान का पूर्ण प्रकाश होता है । तब चर्मचक्षुओं के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती -- शुद्ध आत्मा का ज्ञानो