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(१५) आत्मा का ठीक अभिज्ञान हो । (५) संवेग-संसार के कार्यो मे ममत्व को न रखकर विरक्त
रहना। (६) शक्ति भर त्याग-शक्ति को न छिपाकर त्याग धर्म का
पालन करना । क्रोधादि कषाय अंतरंग परिग्रह का त्याग करना और बहिरंग में धन धान्यादि का त्याग
(आकिंचन्यव्रती होना) (७) शक्ति भर तप-अपनी शक्ति के अनुसार इन्द्रियनिग्रह
और इच्छानिरोध के लिये तप का अभ्यास करना । (E) साध समाधि-सोधुजनों की सत्संगति में समता भाव
जन्य समाधि-योग निष्टा की पूर्णता प्राप्त करना । (8) वैयावृत्य-भक्ति पूर्वक साधु समूह की सेवा करना __ और करुणाभाव से जीवमात्र का उपकार करने मे
निरत रहना। (१०) अर्हत-भक्ति-अर्हत महापुरुषों की उनके गुणों को
प्राप्त करने के लिये भक्ति करना । (११) आचार्य-भक्ति-संघ नेता आचार्य के कर्तव्य को
पहिचानकर उनकी भक्ति करना। (१२) बहुश्रुत भक्ति-अपने से अधिक ज्ञानी शिक्षक
उपाध्याय की भक्ति करना,जिससे ज्ञान का विकास हो । (१३) प्रवचन भक्ति-सत्य समीचीन शास्त्रों के स्वाध्याय
मे निरन्तर भक्तिभाव रखना।