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महावीर ने स्पष्ट कहा था कि निर्ग्रन्थ श्रमण को नग्नभाव, मुंडभाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भमिशय्या, केशलोंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के गह में भिक्षार्थ जाना
और आहार की वृत्ति का पालन करना अनिवार्य है। ऐसे साधुओं को श्वेताम्बरीय शास्त्रोंमे 'जिनकल्पी' लिखा गया है
और इन नग्न मुनियों को वस्त्रधारी साधुओं से अधिक विशुद्ध माना है। ('आउरण वजियाणं विशुद्ध जिणकप्पियाणन्तु'प्रवचनसारोद्धार भा० ३ १० १३) 'आचाराग' मे भी उसे ही सर्वोत्कृष्ट धर्म कहा है। इस प्रकार विरोध के लिये सिद्धान्त का झठा सहारा लिया गया-उसकी व्यवहारिकता में ही विपमता उग आई । वैसे तो जैनेतर साहित्य और पुरातत्व भी यह ही साक्षी उपस्थित करता है कि निम्रन्थ श्रमण संघके साधु नग्न रहा करते थे।
जैनेतर साहित्यमें वैदिक और बौद्ध ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। ऋक्संहिता' (१०११३६-२) मे 'मुनयो वातरसना." का उल्लेख
१. 'से जहानामए अजोमए समणाणं निग्गंथाणं नग्गभावे, मुएड.
भावे, यहाणए, अदंतवणे, अच्छत्तए, अणु वाहणाए, भूमि सेन्जा, फलगसेजा, कठसेजा, केसबोए, बंभचेर वामे, लदावलद वितीनो जाव परणचानो एवाभेव महापठमेवि अरदा समणाण णिग्गंथाण गगभावे जाव लद्वावलद वितीभो जाव पवेहित्ति।" ठाणा सूत्र (हैदराबाद संस्करण ) पृ० ८.३ "सूत्रकृतान" (प०७२) में भी निप्रन्य श्रमणों को मुटे सिर नगं फिरगे वाना लिखा है । ( नगिणांपिंटोल गाहमा, मुदाकडविण गा) नग्नमाव ( नग्गमाव ) से मवलय वाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा मुक ही होता है । यदि वासभेप नग्न न हो तो परिग्रह से मुक्ति मिलना कैसे सम्मत्र होगा ?