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लिये आवश्यक मानते थे, अपने प्राचीन निर्ग्रन्थ नाम से ही प्रसिद्ध रहे । वही निर्मन्थ आगे चलकर दिग्वास अथवा दिग म्बर नाम से उल्लेखित किये जाने लगे। विरोधकी यह भावना यहाँ ही नहीं रुकी, प्रत्युत उसका बांध जो टूटा तो वह शतधाराओं में वह निकली - दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों ही सम्प्रदायों मे अनेक गणों और गच्छों का प्रादुर्भाव हो गया । किन्तु यह भेदभाव तो जैनत्व के अनुकूल नहीं है। जैन की महिमा उसके अनेकान्तरूप मे है, जो सभी विरोधों का समन्वय करता है । फिर क्या कारण है कि जैन आज भी उस समन्वयदृष्टि को नहीं अपनाते और लोक में अनेकान्त प्रभुता को मूर्तमान नहीं बनाते ? क्या उन्होंने अनेकान्तधर्म नहीं पहिचाना है ? भ० महावीर के अनुयायी के लिये तो 'अनेकान्ती' होना पहली शर्त है । अनेकान्त की प्रभुता जैन सबमें चमके - यह प्रत्येक विवेकशील जैन की कामना और प्रयास होना आवश्यक है ।
१. मथुराके कंकाली टीलामे कुशाल का के प्राचीन लेखों में 'निर्मान्य भातो' (जेनों) का उल्लेख है । नन्दि संघ के प्राचार्य 'इन्द्रनन्दि का उल्लेख अहिच्छत्र के स्थम्भलेख में एवं गृद्दनन्दि आचार्य का ठरख पहाड़पुर के ताम्रपत्र ( मन् ४०१ इं . ) में हुआ है; जहाँ उनको नियन्य संघका भाचार्य लिम्बा है । सर्वोपरि कदम्बवंश के राजा श्रीविजय शिवनगेश वर्मा के ताम्रपत्र (२ वीं शती) के उल्लेख से यह स्पष्ट है कि दिगम्बर पहले 'प्रिय' कहलाते थे । उसमें लिखा है कि कदम्बनरेश ने कालवंग ग्राम का एक भाग भई भगवान् की पूजा के लिए, दूसरा भाग श्वेतपट महाश्रमण संघ के लिए और तीसरा भाग निर्मन्थ महाश्रमण संघ' के जिए प्रदान किया था— जैन हितैषी मा० १४ पृ० २२६ ।