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में एक शीलवत नहीं बढ़ाया, बल्कि उन्होंने अहिंसावत का विवेचन भेदोपभेदरूप में करके उसके पाच रुप (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) ब्रह्मचर्य, (४) अचौर्य और (५) अपरिग्रह वताये । मूलत' भाव रूपेण इनमे अन्तर कुछ भी न था। किन्तु श्वेताम्वरीय शास्त्रों मे सवस्त्र साधुता को प्राचीनताका रंग देने के लिये उक्त प्रकार के अन्तर दोनों तीर्थंकरों के मतों में बताये गए हैं। दिगम्बर मान्यता इसके विपरीत है। यह हो भी नहीं सकता बद्धि इसे स्वीकार नहीं करती कि जब सवत्र दशा से ही मुक्ति पाना सुलभ था, तब कोई कैसे नग्न रहने की घोर परीषह सहन करता? भ० महावीर उसका निरूपण ही क्यों करते? धर्म विज्ञान में काम की सूक्ष्म गति को जीतना परमावश्यक बताया है--नग्नता इस बात का प्रमाण है कि साधक ने लन्ना
और वासना को जीत लिया है-उसको इन्द्रियउद्रेक किसी भी दशामे नहीं होता। श्वेताम्बरग्रंथ 'आचारागसूत्र' मे इसी कारण नग्न वेप को ही सर्वोच्च श्रमणदशा बताई है। म० गौतमबुद्ध के पहले से ही नग्न वेष साधुता का चिन्ह माना जाता था। सवस्त्र वानप्रस्थ सन्यासियों के अतिरिक्त नन्न श्रमण सम्प्रदाय पथक विद्यमान् था । अत. यह नहीं कहा जा सकता कि भ० महावीर ने ही पहले पहल नग्नता को साधुपद के लिये श्रावश्यक ठहराया और स्वयं नग्न रहे । धर्मविज्ञान ही उसकी आवश्यकता को निरूपता है-अन्तर बाहर, सब ओर से मुमुक्षु को परिग्रह रहित नंगा रहना उचित है । जैनेतर साहित्य भी
१. जैनसूत्र (S. B. E.) मा७ : पृ० ५५-५६ २ इण्डियन ऍटोकरी, भा० ६ पृ० १६२