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भ० पार्श्वनाथ तेवीसवे तीर्थङ्कर थे और वह भ० महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले हुये थे |१ वनारस के राजा अश्वसेन और रानी वामा के वह सुपुत्र थे । उन्होंने भी भ० श्ररिष्टनेमि का अनुसरण किया था - उन्हीं के समान वह भी कौमारावस्था में ही गृहत्यागी हुये थे-- बाल ब्रह्मचारी रहकर उन्होंने योग की उत्कृष्टता को प्राप्त करके सर्वज्ञ पद पाया था । कमठ- सद्दश हठयोगियों के भ्रम को उन्होंने ज्ञान-दान देकर मिटाया थाजनता अहिंसा की ओट में हिंसा का अनुभव कर रही थी ! भ० पार्श्वनाथ ने उसे मिटाने का उद्योग किया । उन्होंने अपना एक साधुसव अलग स्थापित किया उसमे भ० महावीर के संघ से यह विशेषता रक्खी कि चारित्र नियमों को सैद्धान्तिकसाचे में नहीं ढाला । सीधे सादे भक्तों को तर्क की आवश्यकता ही क्या थी ? किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि भ० पार्श्वनाथ तर्कज्ञान से अछूते थे - उन्होंने कोई सिद्धान्त प्ररूपा ही नहीं ! तत्कालीन धार्मिक स्थिति उनके धर्मके सैद्धान्तिक रुपको प्रकट कर देती है ।२ हॉ, यह मान्यता गलत प्रमाणित होती है कि भ० पार्श्वनाथ ने अपने साधु-शिष्यों को वस्त्र पहनने की आज्ञा दे दी थी और अहिंसा अचौर्य-सत्य और अपरिग्रह रूप चार व्रतों का विधान किया था । वस्तुतः उन्होंने व्रतों के भेद निरूपे ही नहीं - सामायिक चारित्र विधान मे उनके भेदोपभेद रूप कथन करने की आवश्यकता ही नहीं थी । उन्होंने अहिंसाव्रत का प्रतिपादन किया और उसी मे सभी व्रतों का समावेश कर दिया । इसलिये भ० महावीर ने उनके बताये हुये चार व्रतों पाश्र्वेस तीर्थसन्ताने पंचशदद्विशताब्दके ।
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१.
तदभ्यन्तर वर्षा महावीरोत् जानवात्र ।। २७६।। " २. देखो भगवान् पार्श्वनाथ पृ० ४७८-४७६
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- उत्तर पुराव