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( ३१० ) मिली, उन्हीं को उसने अपनाया। जैनशास्त्रों से स्पष्ट है कि बीसवें तीर्थंकर मुनिसत्रतनाथ के तीर्थ से ब्राह्मण वैदिक ऋषिगण अहिंसा मागे से भटक गये थे उन्हें सुरा और मांसका चस्का पड़ गया था, इसलिये उन्होंने वेदों मे उनका विधान करके अपनी रसना-तृमि का साधन जुटा लिया था । सुरा और मांस का प्रचार आये जनता में सब हुआ था । भ० अरिष्टनेमि ने इस कुप्रथा के विरुद्ध प्रचार किया लोगों को अन्ध अनुकरण से जगाया- उन्हे ज्ञात नेत्र दिया-अहिंसा का प्रचार हुआ अवश्य, परन्तु वह प्रतिक्रिया इतनी बलवती सिद्ध न हुई कि अहिंसा का साम्राज्य स्थापित कर देती ! चावल्क्यके निकट आत्म-काम ( Self-love ) मुख्य था । वह कहते थे कि त्याग अवस्था में भी स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि भोगोपभोग की वस्तुओं को एकत्रित करना बुरा नहीं है ।र जहॉइस प्रकार का प्रचार हो, वहाँ अहिंसा और संयमके लिये कहाँ गुञ्जाइस ? फिर भी अरिष्टनेमिजी अपने प्रचार में सफल हुये। उनके समयकेभोले जीव जल्दी सन्मार्ग पर आगये । इसलिये ही उन्होंने सामायिक चारित्र का प्रतिपादन किया- भ० महावीर के समान छेदोपस्थापना चारित्र-भेद प्रभेदरूप व्रताचार के वर्णन का उपदेश उन्हें नहीं देना पड़ा। हॉ, जिस अहिंसा धर्म के भव्य प्रासाद का नीवारोपण अरिष्टनेमि जी ने किया, उसे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के पश्चात् भ० महावीर ने ही ऊँचा फहराया।
१. हरिवंश पुराण में नारद-पर्वत संवाद देखो। २. ए हिस्ट्री प्राव प्रबुद्ध ० इण्डियन फिलासफी, पृ. १५३.१८० ३. यावीसं वित्ययरा सामाहर्ष संजमं उवदिसंति । देदोवद्यावणिय पुण भयवं टसहो य धीरो य ।। ७-३२॥
- -मूलाचार