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हज़ार वर्षों तक यह दुख के पहाड़ खड़े करता रहेगा। अभी तक इसकी लगभग २४०० वर्षे व्यतीत हुई है । धर्म इसमे की तरह चमकता रहेगा - धर्म प्रकाश में इस काल के जीव भी सुख का आभास देख सकेंगे । (६) उपरान्त अन्तिम दुखमादुखमा काल महान् दुख और अंधकार का समय होगा । उसके माथ विसर्पिणी काल समाप्त होगा । सब वस्तुयें ह्रास की चरम सीमा को पहुंचकर प्रतिक्रिया को प्राप्त होंगी । उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भसे सब वस्तुओं का क्रमश. अभ्युदय प्रारंभ होगा। इन छै कालों में पहले तीन काल केवल भोग भोगने के अभिनय क्षेत्र है । जीव इतने पुण्यशाली होते है कि वे घर कुटुम्ब और कमाने धमाने के ट में नहीं पड़ते है । वह प्रकृतिसुलभ पदार्थो से तृप्ति अनुभव करते है । शेष तीन काल 'कर्मयुग' हैं | इनमे मानव जीविकोपार्जन करके सभ्य जीवन विताता हैधर्मकर्म मे प्रवृत्ति करता है । इस समय ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने धर्मतत्व की देशना दी थी। वह धर्म देशना उनके पश्चात् तेईस तीर्थंकरों द्वारा पुनर्स्थापित होती आई | भ० पार्श्वनाथ के पश्चात् जब काल प्रभाव से धर्म तत्व का ह्रास हुआ, तो अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर के महान् व्यक्तित्व से उसका पुनः विकास हुआ ! भ० महावीर ने किसी नये धर्म की स्थापना नहीं की । यह संसार की स्थिति और काल चक्र का प्रभाव था कि धर्म तीर्थ की पुनर्स्थापना समय २ पर होती आई है । संसार परिवर्तनशील जो है ।
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