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( ३ ) तीर्थंकर कौन है ? "तित्थयरा चवीस वि केवलणाणेण दिसन्बट्ठा । पसियतु विसरूवा तिहुवय सिरसेहरा मन्मं ॥"
- जयधवल
“जिन्होंने अपने पूर्ण - केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को देख लिया है, जो शिवस्वरूप हैं और त्रिभुवन के सिर पर शेखररूप हैं, क्योंकि वह अद्वितीय हैं," ऐसे चौवीस तीर्थङ्करों का वरदहस्त सदा वाञ्छनीय है । श्री वीरसेनाचार्य के उपरोक्त वाक्य से स्पष्ट है कि प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में चौवीस तीर्थङ्कर होते हैं । वे उस काल के समस्त महापुरुषों मे प्रधान होते हैं और आत्मकल्याणकारी तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं । इसलिए ही वे 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । 'तृ' धातु से 'थ' प्रत्यय सम्बद्ध होकर 'तीर्थ' शब्द बनता है । इस 'तीर्थ' शब्द का अर्थ है कि "जिसके द्वारा तरा जाय ।" और 'धर्म' शब्द से 'वस्तुका स्वभाव' अभिप्र ेत है । तीर्थंकर धर्म- तीर्थ की स्थापना करते हैं । जिसके सहारे प्राणी संसार के दुख सागर को तैर कर उस पार-सुख के मुक्त द्वार पर पहुँचते हैं । तीर्थवर पदार्थ विज्ञान और आत्म तत्व के रहस्य को वैज्ञानिक रीति से प्रतिपादित करते हैं । इसलिए वे ही लोक में तीर्थकर नाम से प्रसिद्ध होते हैं । इस अविसर्पिणी कल्प के चौथे काल में ऋपभादि चौत्रीस तीर्थकर हो चुके हैं । भ० महावीर उनमें सर्व अन्तिम हैं ।
कतिपय युवक तीर्थंकरों की चौवीस संख्या पर आपत्ति