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(८) हुये है । अलंकृत भाषा मे कहें तो कह सकते है कि ब्रह्मा
(सृजन )-विष्णु (संरक्षण)-महेश (सहार) की लीला सत__ संसार है । यहाँ न वस्तु का सर्वथा नाश होता है और न नई
वस्तुका सृजन ! अलबत्ता वस्तुओं की स्थिति में नितनया परिवर्तन होता रहता है । इसलिये ससार परिवर्तनशील माना गया है।
संसार की स्थिति मे यह परिवर्तन कालचक्र के निमित्त से होता है । काल द्रव्य अनन्त है और महान् शक्ति है उसकी ! संसार में परतापरत का व्यवहार उसके कार्य का प्रत्यन फल है। व्यवहार मे उसके दो रूप अथवा कल्प दृष्टिगत होते हैं : (१) अविसर्पिणी अर्थात् वह काल जिसके प्रभाव से वस्तुओं का क्रमशः ह्रास होता है । इस काल मे धीरे २ आत्म धर्म का लोप होता और अधर्म का साम्राज्य स्थापित होता है। और (२) उत्सर्पिणी अर्थात् वह काल जिसमें वस्तुओं की क्रमशः उन्नति होती है और वर्म तत्व का विकास होता है । यह दोनों कल्पयुग छै कालों ( Ages) में विभक्त हैं। अविसर्पिणी युगके छ काल ' हैं : (१) सुखमा-सुखमा, वह काल जिसमे खूब सुख होता है । मानव प्रकृति सरल और पुण्यभोगी होती है, (२) सुखमा, वह काल जिसमें जीवन साधारण सुखमय वीतता है, (३) सुखमा-दुखमा, इस काल मे जीवन सुख दुख से सना रहता है, (४) दुखमा-सुखम्प, ऐसा काल है जिसमें दुख की प्रबलता और सुख की अल्पता होती है; (५) दुखमा, वह काल जो दुख से ओत-प्रोत है। यही वर्तमान काल है । इक्कीस