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संसार-स्थिति और काल-चक्र ! "गीयते यत्र तानन्दं पूर्वाह्न ललितं गृहे । यस्मिन्नेवहि मध्यान्हे, स दुःखमिह रूद्यते ॥"-ज्ञानाणवः
म घर मे प्रभात-समय आनन्द-उत्साह के सुन्दर सुन्दर "मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्यान्ह के समय उसी घर मे दुखके साथ रोना सुना जाता है। संसार की यह विचित्र स्थिति है । संसृति, उलट-पलट का खेल है । जिसका आज विकास है कल उसका अन्त अवश्यम्भावी है। चन्द्र की शुभ्रज्योत्सना लोक को अतिरजित करके अवसान को प्राप्त होती है। किन्तु मानव हृदय मे एक आशा की रेखा छोड़ जाती है। यह आशा रेखा ही मानव को नव उत्साह और नव स्फूर्ति प्रदान करती है और उल्लास से वह निश्शंक हो जाता है। "चिन्ता नहीं जो व्योम विस्तृत चन्द्रिका का ह्रास हो ! चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो !"
इस प्रकार यह संसार घटनाओ की आश्चर्यमय पुनरपि घटनास्थली है । यहाँ जन्म का अवसान नवीन विकास मे छुपा हुआ है। संसार मे सार-वस्तु यह विकास-क्रम है। वस्तुस्वरूप को पहिचान कर जो विचक्षण विकास-पथ का पथिक बनता है, वह जीवन साफल्य को प्राप्त होता है। वस्तु स्वरूप सतरूप है। सत् उत्पाद-ध्रौव्य-व्यय मे अपना अस्तित्व छुपाये