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है। उमका बल, ज्ञान, दर्शन, सुख कभी मिटने वाला नहीं। इसलिये व्यक्ति स्वाधीन वने-अपनी आत्मा को ही अपना सर्वाधिकारी माने और उसके धर्म-शासन-ज्ञान दर्शन के विकास को अपनी सम्पति माने, तभी वह पर-पदार्थ की वाचा रूपी वन्धन से छूट कर मुक्त प्रभू बन सकता है । न जन्म में महानता है और न जाति में विशेषता है-महानता और विशेपता हमारे अन्तर में विद्यमान है । अत.अन्तरात्मा बनकरलोक मे विचरो तो कदाचिन् महावीर के समान वन सकते हो । भ० महावीर की इस स्वाधीन आत्म-स्वातंत्र्य और स्वभाग्य निर्माण की शिक्षा ने लोक को नया जीवन दिया । मतवाद की हाला को पीना लोक भूल गया-कुल जाति के मद में वह पागल न रहा
और पशु यज्ञों के स्थान पर इन्द्रिय वासना का यज्ञ रचना, उसने सीखा । भ० महावीर के अन्तर-दर्शन पाकर लोक की कायापलट हुई थी। यह उस समय की महान् विजय थी। अहिंसा सस्कृति का अभ्युदय उस समय का ऐश्वर्य था । लोक के कण-कण मे आत्मस्वरूपी वीर-दर्शन हो रहे थे। लोक एक स्वर से कह रहा था.-"महावीर,शरणं गच्छामि !" -"अरहन्त-शरण गच्छामि।" व्यक्ति के सुधार ने समिष्टि को सुधार दिया । अहिंसा ने वसुधा को एक कुटुम्ब में परिणत कर दिया और लोक मे विश्व प्रेम की जान्हवी का सुखद अवतरण हुआ । अतः आइये पाठक, उन प्रभू महावीर के पवित्र जीवन का दिग्दर्शन करें।