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________________ श्री ऋपभदेव और भ० महावीर ! "स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले म्वमञ्जसज्ञानविभूतिचनुपा । विराजित येन विधुन्वता तमः क्षपाकरणेव गुणोत्करैः करैः॥ -श्री समन्तभद्राचार्य। के उपदेश विनाही अपने आप मोक्षमार्ग को जानकर अनन्त चतुष्टयरूप होने वाले तथा परम दयाल होने से प्राणियों को मोक्षसुख के प्रथम प्रदर्शक अतएव हितकारक और यथावत् (ठीक ठीक ) सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाली जानलक्ष्मीरूप नेत्रवाले और सम्यन्दर्शनादि गुणों के समूहरूप किरणों से ज्ञानावरणादि कर्मान्धकार को हरने वाले चन्द्रमा के समान श्री आदिनाथ (ऋपभदेव ) भगवान् इस पृथ्वी पर सुशोभित हुये " ऋपभदेव इस पृथ्वी पर उस समय अवतीर्ण हुये नव यहाँ भोगभूमि का लोप हो गया था और कर्मभूमि का समय आया था। तब लोगों के लिये जीवन निर्वाह के वास्ते कर्तव्य-पाठ पढ़ना आवश्यक हो गया था। तब लोग अति भोले थे-मानवजीवन की प्रारम्भिक आवश्यक वातों से भी अनभिज्ञ थे ! उन्हें एक पथप्रदर्शक नेता की आवश्यकता थी । भ० ऋषभदेव रूप में वह नेता उन्हें मिल गया। वह जगत के आदि गुरु हुयेआर्य सभ्यता और संस्कृति को उन्होंने ही पल्लवित किया। ऋषभदेवजी ने ही मनुष्यों को उनके दैनिक कृत्य, असि, मसि, कृषि आदि जीवनोपयोगी कलाचातुर्य और शिल्प आदि लौकिक
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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