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कृत्य वतलाये । मनुष्य के पारलौकिक हित के लिये उन्होंने वस्तुतत्वमय यथार्थ आत्मधर्म का स्वरूप समझाया - यथार्थ परमसुख पाने का मार्ग बतलाया । वे स्वयं उस धर्म - मार्ग के पर्य्यटक वनकर जीवन्मुक्त परमात्मा हुये । इसीलिये जैन शास्त्रों मे वह इस कल्पकाल में धर्मतीर्थ के संस्थापक पहले तीर्थङ्कर कहे गये हैं | तत्वरूपमे धर्म उनके पहले भी विद्यमान था, परन्तु अपने समय की स्थिति के अनुसार उन्होंने उसका प्रतिपादन किया था --- वह धर्म के आदि संस्थापक हुये ।
ऋषभदेव चौदहवें कुलकर (मनु) नाभिराय के पुत्र थेउनकी माता मरुदेवी थीं । वह क्षत्रियों के इक्ष्वाकु वंश के आदि पुरुष थे । उनके दो विवाह हुये थे - यशस्वती और सुनन्दा उनकी धर्मपत्नियाँ थीं । दोनों ही विदुषी महिलारत्न थीं । यशस्वती के भरत आदि पुत्र और ब्राह्मीपुत्री जन्मीं थीं और सुनन्दा की कोख से बाहुबलि नामक पुत्र और सुन्दरी नामक कन्या का जन्म हुआ था । ब्राह्मी और सुन्दरी ने ही पहलेपहल त्यागमय जीवन बिताया था - वे साध्वी हुई थी । उन्होंने तीर्थङ्कर ऋषभदेव के निकट आर्यिका के व्रत धारण किये थे और देश-विदेश में घूमकर लोक का कल्याण किया था । ऋषभदेव ने सबसे पहले अपनी इन पुत्रियों को ही स्वर - लिपि और
गणित की शिक्षा दी थी । उस समय भ० महावीर का जीव ऋषभदेव जी का पौत्र मरीच था । वह भी मुनि हुआ था, परन्तु मार्गभृष्ट होकर मिथ्या मत का संस्थापक बना था यह, लिखा जा चुका है । भरत लोक के पहले सार्वभौम सम्राट् - चक्रवर्ती हुये थे । अपने शासन की सार्वभौमिकता - एक छत्रता प्रगट करने के लिये वह अपने भाई बाहुबलि से जझ पड़े थेपरन्तु उनका युद्ध अहिंसक था । भरत परास्त हुये और अपमान को सहन न कर भाई के प्राणों के ग्राहक बने ! बाहुबलि पुण्य