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साधारण कार्य नहीं है - है वह अवश्य प्यारा और पावन । महावीर अतिवीर तीर्थंकर थे । वह साक्षात् ज्ञान और चारित्र - रूप थे । अत के छयालीस गुण उनमे प्रकाशमान थे । वह सशरीरी सर्वज्ञ शुद्ध-बुद्ध - परमेश थे । परमात्मदशा के सब ही गुण उनमे दृश्यमान थे ।
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कहते है कि महान् चरित्र के माप तीन है अर्थात् (१) शरीर बल, (२) मानसिक उत्तमता और (३) नैतिक चारित्र की निर्मलता । तीर्थङ्कर महावीर का चरित्र इस माप मे सौटंच सोने की तरह चमकता हुआ प्रगट होता है । उनका शरीरवल लोक में अनुपम था- वह वज्रवृषभनाराच संहनन युक्त द्वितीय था। उनका शरीर बल और सौन्दर्य चक्रवर्ती और कामदेव को लज्जित करता था । वह सुन्दर सुवासित सात हाथ का शरीर स्वर्णवर्ण का था । भ० महावीर ने उसका ठीक उपयोग किया - वह वाल ब्रह्मचारी रहे । यह थी उनकी शारीरिक उत्कृष्टता । श्वेत दुग्ध सा रक्त उनकी नसों में वहता था ?
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भगवान् की मानसिक उत्कृष्टता इसी से अंदाजी जा सकती है कि वह जन्म से ही मति, श्रुति और अवधिज्ञान के धारक थे । इस उत्कृष्टता को उन्होंने लगातार कई जन्मों के अध्यवसाय से प्राप्त किया था । उनके लिये वैसे साधन सुगम नहीं थे; किन्तु उन्होंने अपने को उन साधनों के योग्य बनाया था - इसी मे उनकी महावीरता थी । साधन सुलभ होने पर हर कोई उन्नति कर जाता है; परन्तु इसमे विशिष्टता कुछ नहीं । महावीर के चरित्र में विशिष्टता इसीलिये है कि वह जीवन की निम्नतम श्रेणी मे पड़े हुये थे, परन्तु अपने सद्प्रयत्नों से उसी तरह चमके जिस प्रकार हीरा खराद पर चढ़कर चमकता है । सोचिये जरा, कहॉ एक जंगली भील और कहॉ विश्वधर्म प्रणेता महा