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वीर ! मासोपजीवी भील अपने ही उद्योग से मानसिक उन्नति करके तीर्थकरत्व को प्राप्त करता है। और जन्म से ही विनानधारी बनता है। मानसिक परिपूर्णता का अर्थ महावीर क निकट विवेक का जागृत होना था। शुष्क तार्किक बुद्धिवाट तो एक मानसिक वासना है-महीपी वासनालिप्त होता नहीं, वह विवेकी है। इसलिये ज्ञान का माप कोरा तर्कवाद नहीं है और न उससे मानसिक उत्कृष्टता प्राप्त होती है। मानसिक उत्कृष्टता का प्रमाण अमित कारुण्यवर्षक विवेक है। भ. महावीर उसक आदर्श उदाहरण थे। लगातार बारह वर्षों तक साधना मे लीन रहकर उन्होंने वह उत्कृष्टपद पाया जो मनका ऋणी नहीं रहता। मन के आधार से प्राप्त हुआ ज्ञान साक्षात् आत्मज्ञान नहीं है। वह परावलम्बी है । भ० महावीर परावलम्बी नहीं रहे-वह सर्वज्ञ हुये-पूरे आत्मज्ञानी बन गये। उन्होंने मन पर विजय पाई । यही कारण है कि वे एक अद्वितीय प्रभावशाली वक्ता थे। उनके मुखकमल से सदैव सत्यामत वर्षता था।
पाठक, अव स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि भः महावीर सदृश विवेकी महापुरुप का नैतिक चरित्र कितना विशाल होगा। निस्सदेह महावीर साक्षात् शील, धर्म और संयम की प्रतिमूर्ति थे। वह श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र को मोक्षसिद्धि के लिए एक साथ आवश्यक मानते थे। विविध-विषय-ज्ञान-पटु होना और बात है, लाखों किताबों को पढ़ डालना एक चीज़ है और उस ज्ञान को सम्यक् श्रद्धा की कसौटी पर कसकर चारित्र चंदन से चर्चित करके सुगंधित वनाना और चीन है। भ. महावीर कोई बात कहते पीछे थे, पहले उसे वह अपने अनुभव की वस्तु बना लेते थे। श्रद्धा, नान और चारित्र तीनों एक साथ उनके जीवन में चमकते थे। उनके जीवन की एक घड़ी भी व्यर्थ न जाती थी- उसमे उपयुक्त तीनों रत्न प्रकाशित होते रहते थे।