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भावान् का दिव्योपदेश और निर्मल चारित्र ! 'श्री सन्मति केवल उदय, नास्यो तम अज्ञान ।। विश्वनाथ प्रणमौ सदा, विश्व प्रकाशक भान ॥१॥ अब प्रभु दिव्यध्वनि भई, स्वर्ग मुकति सुखदाय । चतुर बदन प्रारम्भ किय, सप्तभंग समुदाय ॥२॥
-श्री वर्द्धमान पुराण मानव इतिहास मे महापुरुषों के शुभागमन विपयक प्रकरण अनूठे हैं। जिस प्रकार शरद् ऋतु का निर्मल पूर्णचन्द्र और उसकी शरद् ज्योत्स्ना सारे वर्ष भर में अपना अनोखापन और अपूर्व आल्हाद विस्तारती है, उसी तरह महापुरुषों का अवतरण लोक के लिये विशेष और अपूर्व आल्हादकारी है। निस्सन्देह इतिहास में कोई भी प्रकरण ऐसे प्यारे और उत्तम नहीं दिखते जैसे वे कि जिनमें उस समय के किसी वर्मप्रवर्तक या आचार्य के शुभागमन का वर्णन हो । भव्य-कुमुद ऐसे निर्मल पूर्णचन्द्र को पाकर खिल उठते है और उनके आलोक में गौरव और सुख अनुभव करते हैं। उन महापुरुषों की निर्मल वाणी लोककल्याण का कारण होती है लोग उसे सुनकर अवधारण करते हैं और उनके पगचिन्दों का अनुसरण करके अपने को कृतार्थ मानते हैं । चुम्बक पत्थर के समान लोक जगतगुरु के निकट स्वयं आकृष्ट हो जाता है उन्हें किसी को न्योता देने की आवश्यकता नहीं होती।
भ० महावीर का पतितपावन चरित्र उनकी महानता को स्वयं व्यक्त कर रहा है उसकी विशेषता शब्दों की ऋणी नहीं है; कदाचिन् वह अवक्तव्य ही है। उसका दिग्दर्शन कराना