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( २७३) किया । बुद्धदेव की यह दृढ़ता जैन तीर्थकर के महान् व्यक्तित्व मे चमकते हुये ज्ञानसूर्य की ऋणी थी-जिनेन्द्र के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दर्शन से ही इस प्रकार की प्रशस्त आकाक्षा सुदृढ़ वनती है । म० बुद्ध ने कई दफा निर्ग्रन्थ साधुओं से बातचीत की थी और उनके मुखसे उन्होंने सुना था कि निर्ग्रन्थराद ज्ञातृपुत्र महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। उन्हे भी उस आर्यज्ञान को पाने की लालसा हुई और अपने ढंग से उन्होंने अपनी मनातुष्टि कर ली | उस ज्ञान को पाने के लिये उन्होंने कड़े से कड़ा तपश्चरण वर्षों किया-क्षीण शरीर होने पर भी उन्होंने अपने प्रयत्न को नहीं छोड़ा। जैनतीर्थकर के अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिसका दृष्टांत वुद्धदेव के दिल पर इतना प्रबल प्रभाव डालता । तीर्थकर पार्श्वनाथ जी की परम्परा से उन्होंने जैनधर्म के इस दावे का प्रत्यक्ष अनुभव पाया था कि प्राणी पूर्णज्ञानी- सर्वज्ञ हो सकता है । तीर्थकर महावीर के जीवन मे वह पूर्ण ज्ञान-सूर्य उदय हुआ ही था । अतः स्वयं बुद्धदेव और उनके संघ पर भ० महावीर का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था म. बुद्ध ने 'विनयपिटक' मे कई नियमों का विधान तीर्थकोंमुख्यतः जैनियों के अनुरूप किया लिखा है । उदाहरणत. अष्टमीचतुर्दशी को संघ सम्मेलन और उपदेश करना, वर्षा ऋतु मनाना, जीवों की रक्षा करना, वर्षा ऋतु के अन्त मे आलोचना करना जो 'पवारना' कहलाती थी । वर्षा ऋतु मनाने का प्रसंग जैन प्रभाव को खुब व्यक्त करता है। पाठक, उसे जरा देखिये । 'महावग्ग' (३।१।२ ) में लिखा है कि बौद्ध भिक्षु वर्षा ऋतु नही मनाते थे। वर्षा मे भी इधर उधर चलते फिरते थे। जनता को यह व्यवहार अखरा। लोग कहने लगे, 'यह
१, VT. (SBE XIII), p.