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________________ (२७) मङ्खलि गोशाल और पूरणकाश्यप-प्रसंग "सिरि वीरणाहणतित्थे वहुस्सुदो पाससंघगणिसीसो । मक्कडि पूरण साहू अण्णाणं भासए लोए ॥" -दर्शनसार। भगवान् महावीर के तीर्थ मे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के संघ के किसी गरणी का शिष्य मस्करी पूरण नामक साधु था। उसने लोक मे अज्ञान मिथ्यात्व का उपदेश दिया। श्री देवसेनाचार्यजी ने उपर्युक्त गाथा मे यही व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि जब भ० महावीर सर्वज्ञ हो गये तब मस्करिपरण इस आकांक्षा से उनके समवशरण मे पहुँचा कि उसे गणधर पद प्राप्त होवे, परन्तु उसको हताश होना पड़ा । वह रुष्ट होकर श्रावस्ती चला गया और वहाँ आजीविक सम्प्रदाय का नेता बन गयालोगों मे उसने अपने को तीर्थव र प्रगट किया । यह प्रसंग भ० महावीर के धर्म प्रचार से पहले का है। उपरान्त यह पता नहीं चलता कि धर्म-विहार में उनका साक्षात् मस्करि से हुआ हो ! जो स्वयं अभिमान और मिथ्यात्व का पुतला बन गया हो, उसका यह सौभाग्य कहाँ कि वह तीर्थंकर भगवान् की निकटता प्राप्त करे? भगवान के समवशरण मे प्रायःभव्य जीव ही प्राप्त होकर अपना आत्मकल्याण करते हैं जिनका मिथ्यात्व क्षीण हो चला हो वह भी सर्वज्ञ प्रभ के सत्यपरक आलोक में आ जाते हैं। भ० महावीर का विहार तो जीवमात्र के कल्याण के लिये हो रहा था।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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