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( २५८ ) के अनुसार उनके दुखों को मिटाना चाहिये और पूज्य साधु महानुभावों की तो विनय पूर्वक वैयावृत्य करना अपना सौभाग्य समझना चाहिये । म. महावीर को शिक्षा इस प्रकार मूर्तिमान् हो उनके सामने चमक रही थी ! उदयन उसके एक कर्मठ पुजारी थे। ___ एक दिन उदयन ने प्रोषधोपवास धारण किया था-वह एकान्तवास और धर्म चिन्तन में निमग्न थे। उनके परिणाम समताभाव और वैराग्य परिणति मे उत्तरोत्तर वृद्धि पा रहे थे। उन्होंने सोचा, 'धन्य होगा वह दिन, जव पतितपावन प्रभ महावीर इस वीतभयनगर में पधारेंगे और धन्य होगी वह वेला जब उन श्रमणोत्तम निर्ग्रन्धराज वर्द्धमान ज्ञातृपुत्र के निकट मुनिव्रत धारण करूंगा ! उदयन की यह हार्दिक भावना थी । हृदय की लगन अकारथ नहीं जाती । उदयन की पुण्य-भावना इतनी प्रवल थी कि भ० महावीर को उसने आकर्षित कर लिया । उनका समोशरण वीतभयनगर में आया-उदयन ने राजसी स्वागत करके प्रभको नमस्कार किया ! पुत्रको राजभार सौंपना चाहा, परंतु वह पिता से भी एक कदम आगे था-उसने कहा, "मुझ नहीं चाहिये यह कांटों से भरा राजपट्ट! आत्मस्वातंत्र्य का भक्त मुझे भी वनने दीजिये, पिता" उदयन प्रसन्न थे। अपने भानजे केसीकुमार को उन्होंने राजा बनाया और स्वयं भ० महावीर के निकट जाकर मुनि हो गये। रानी प्रभावती भी आर्यिका हो गई। उदयन पूर्ण संयम, तप और ध्यान का आश्रय लेकर मुक्त परम आत्मा हो गये। उनका आदर्श भ० महावीर की शिक्षा का व्यवहारिक रूप स्पष्ट कर देती है-यही उनकी विशेपता है। श्रेणिक यह सब कुछ जानकर बहुत प्रसन्न हुए थे।